Friday, 21 March 2014

कितने ग़म से کتنے غم سے






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कितने ग़म से रोज़ टकराना पड़ा
नम थीं आँखें फिर भी मुस्काना पड़ा

मेरी बद शकली न कर मुझ पर अयाँ
आईने को रोज़ समझाना पड़ा

इतने ज़हरीले थे वो नफरत के तीर
सामने से मुझको हट जाना पड़ा

अपने घर में भी रहे हम अजनबी
हिजरतें कर के भी पछताना पड़ा

शहर पर शब् की थी ऐसी सल्तनत
एक इक सूरज को मर जाना पड़ा

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