Friday, 28 March 2014

हमने समझा था ہم نے سمجھا تھا





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हमने समझा था कि बस इक कर्बला है ज़िन्दगी
कर्बलाओं का मुसलसल सिलसिला है ज़िन्दगी

एक तेरे ग़म ने सब ज़ख्मों पे मरहम कर दिया
सब ये कहते थे कि दर्दे-ला-दवा है ज़िन्दगी

मुश्किलों से हार जाना इस को आता ही नहीं
शब् की तारीकी से लड़ता इक दिया है ज़िन्दगी

जीने वालों के लिए है आखिरी उम्मीद मौत
मरने वालों के किये इक आसरा है ज़िन्दगी

किस क़दर मकरूह चेहरा है, नज़र आ जाएगा
हर किसी के रू-ब-रू इक आईना है ज़िन्दगी

हर ख़ुशी के बाद ग़म और फिर ख़ुशी की आहटें
आते जाते मौसमों का सिलसिला है ज़िन्दगी

दर्द के तपते हुए सेहराओं से होता हुआ
मौत तक जाता हुआ इक रास्ता है ज़िन्दगी

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Tuesday, 25 March 2014

सच बोले कौन? سچ بولے کون؟





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सच बोले कौन? कोई भी अब मिल नहीं रहा
कोई दिया हवा के मुक़ाबिल नहीं रहा

इक तेरे ग़म का बोझ उठाया था दिल ने बस
फिर कोई ग़म ज़माने का मुश्किल नहीं रहा

तुझसे भी दिलफरेब थे दुनिया के ग़म मगर
मैं तेरी याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहा

तेरे बग़ैर जैसे ये गुज़री है ज़िन्दगी
जीना तो इस क़दर कभी मुश्किल नहीं रहा

वो कौन सी नमाज़ जो तेरे लिए न थी
तू मेरी किन दुआओं में शामिल नहीं रहा

सब तेरी इक निगाह के मक़तूल हो गए
अब सारे शहर में कोई क़ातिल नहीं रहा

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Saturday, 22 March 2014

ताबिन्दा रौशनी की تابندہ روشنی کی





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ताबिन्दा रौशनी की ख़बर ले के आएगी
हर शब् नई उमीदे-सहर ले के आएगी

भटका रही है आज अगर दर-ब-दर तो क्या
आवारगी कभी मुझे घर ले के आएगी

तन्हा तुम्हें भी चलना है इन रास्तों पे कल
कल ज़िन्दगी तुम्हें भी इधर ले के आएगी

कर के तवाफ़ शहर का लौटेगी जब हवा
चेहरे पे अपने वहशतो-डर ले के आएगी

तितली चमन से लाएगी सौगाते-रंग, या
बिखरे हुए कुछ अपने ही पर ले के आएगी

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ज़ुल्मतों के वार ظلمتوں کے وار





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ज़ुल्मतों के वार दम-ब-दम हुए
रौशनी के दायरे न कम हुए

चन्द पत्थरों की शह पे, शहर के
सारे आईनों के सर क़लम हुए

एक आफताब जिसकी मौत पर
लाख दामने-चराग़ नम हुए

जिनके दामनों पे खूं के दाग़ थे
वो तेरी नज़र में मोहतरम हुए

जिस्मो-जान सब लहूलुहान हैं
ज़िन्दगी के हम पे ये करम हुए

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सदमे हज़ारों صدمے ہزاروں





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सदमे हज़ारों, रंजे-दिलो-जान थे बहुत
इस ज़िन्दगी से हम तो परेशान थे बहुत

जीने को इस जहाँ में बहाना कोई न था
हर-हर क़दम पे मौत के सामान थे बहुत

दुश्वार लग रहे थे जो चलने से पेश्तर
जब चल पड़े तो रास्ते आसान थे बहुत

जैसे हुआ निबाह दिया हमने तेरा साथ
वर्ना ऐ ज़िन्दगी! तेरे एहसान थे बहुत

इक जान थी और उस पे थीं सौ सौ सऊबतें
इक दिल था और हसरतो-अरमान थे बहुत

हर हर क़दम पे रंग बदलती थी इक नया
हम ज़िन्दगी को देख के हैरान थे बहुत

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हर मौसम को ہر موسم کو





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हर मौसम को सावन सा मौसम कर देता है
जब भी वो मिलता है आँखें नम कर देता है

तेरे मिलने से होते हैं ज़ख्म हरे लेकिन
तेरा मिलना दिल की उलझन कम कर देता है

रोज़ नए कुछ ज़ख्म मुझे देती है ये दुनिया
तेरा ग़म इन ज़ख्मों पर मरहम कर देता है

मैंने भी सोचा था तिनकों से घर एक बनाऊँ
वक़्त मगर सब कुछ दरहम-बरहम कर देता है

डूब तो जाता है सूरज ख़ामोशी से लेकिन
कितनी ही शम्मों की आँखें नम कर देता है

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रवाँ दवाँ था रगों में رواں دواں تھا رگوں





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रवाँ दवाँ था रगों में जो ज़िन्दगी की तरह
तमाम उम्र रहा वो इक अजनबी की तरह

मैं एक झील था, उस से निबाह क्या होता
वो बह रहा था मुसलसल किसी नदी की तरह

तुम्हारे साथ सदी क्या है? एक लम्हा है
जो तुम नहीं हो तो लम्हा भी है सदी की तरह

तुम्हारे दिल से गुज़र जाऊँगा चुभन बन कर
कभी मैं लब पे मचल जाऊँगा हँसी की तरह

तुम्हारी याद के मिटने लगे हैं नक्श सभी
किसी चराग़ से गुल होती रौशनी की तरह

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Friday, 21 March 2014

कितने ग़म से کتنے غم سے






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कितने ग़म से रोज़ टकराना पड़ा
नम थीं आँखें फिर भी मुस्काना पड़ा

मेरी बद शकली न कर मुझ पर अयाँ
आईने को रोज़ समझाना पड़ा

इतने ज़हरीले थे वो नफरत के तीर
सामने से मुझको हट जाना पड़ा

अपने घर में भी रहे हम अजनबी
हिजरतें कर के भी पछताना पड़ा

शहर पर शब् की थी ऐसी सल्तनत
एक इक सूरज को मर जाना पड़ा

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हुजूमे-ग़म में ہجوم غم میں






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हुजूमे-ग़म में घुट कर हर ख़ुशी दम तोड़ देती है
यहाँ हर मोड़  पर ये ज़िन्दगी दम तोड़ देती है

उभरती तो है तारीकी में थोड़ी देर को लेकिन
अंधेरों से उलझ कर रौशनी दम तोड़ देती है

कभी तो गर्दिशे-दौराँ में वो लम्हा भी आता है
पहुँच कर के जहां पर हर सदी दम तोड़ देती है

निकलती तो है कोहसारों के सीने चीर कर लेकिन
समंदर तक पहुँच कर हर नदी दम तोड़ देती है

न जाने हादसा कब रोनुमा हो जाए इस डर से
लबों तक आते आते अब हँसी दम तोड़ देती है

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इश्क़ रस्मों के मुक़ाबिल عشق، رسموں کے






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इश्क़, रस्मों के मुक़ाबिल आया क्या?
आईना, पत्थर से फिर टकराया क्या?

ज़ुल्मतों से हारा फिर सूरज कोई
आसमाँ ने फिर लहू छलकाया क्या?

सुन के जिसको रात भर रोती रही
शम्मा से परवाने ने फरमाया क्या?

मैं रिवाजों से बग़ावत कर तो दूं
लेकिन ऐसा कर के किसने पाया क्या?

ज़िन्दगी ने आज़माया बारहा
हादसों से मैं कभी घबराया क्या?

आसमाँ चुप है, फ़ज़ा सहमी हुई
फिर छिना सर से किसी के साया क्या?

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ग़म को भी तराश कर غم کو بھی تراش کر






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ग़म को भी तराश कर ख़ुशी बना दिया
हमने ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बना दिया

ज़िन्दगी मिली थी चन्द लम्हों की मगर
हमने लम्हे लम्हे को सदी बना दिया

अश्क, भूक, ग़म, फसाद, खूं, जले मकाँ
सब को जब समेटा शायरी बना दिया

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Thursday, 20 March 2014

बहुत ही सख्त हैं بہت ہی سخت ہیں





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बहुत ही सख्त हैं, अश्कों से तर नहीं होते
ये पत्थरों के खुदा मोतबर नहीं होते

ये तोहमतें हैं तेरी, हमने खुद को देखा है
हम आईने में बुरे इस क़दर नहीं होते

हरेक संग खुदा बन के फिर रहा है यहाँ
सो मेरे शहर में शीशों के घर नहीं होते

न कोई चेहरा, न आँखें, न कोई मुँह न ज़बाँ
हमारे अह्द में लोगों के सर नहीं होते

हरेक पल किसी सूरज के साथ चलना है
ये राहे-ज़ीस्त है, इस पे शजर नहीं होते

हम आसमान कि सरहद को छू के लौट आये
ये लोग कहते थे, इन्सां के पर नहीं होते

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Tuesday, 11 March 2014

शाम में रंगे- शफ़क़ شام میں رنگ شفق





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शाम में रंगे- शफ़क़ बन कर बिखरता कौन है
मेरे बाद अब देखें सूरज सा उभरता कौन है

मेरी आँखों के सभी ख़्वाबों के मर जाने के बाद
ज़िन्दगी में मेरी, देखें रंग भरता कौन है

मैं तो इक टूटा दिया हूँ और तुम सूरज कोई
अब हवा के सामने देखें ठहरता कौन है

मंज़िलें तो हमने पीछे छोड़ दीं, पीछे बहुत
अब इधर से हो के ये देखें गुज़रता कौन है

हुक्म से तेरे हरेक बस्ती जली, हर सर कटा

ऐ अमीरे-शहर ! फिर भी तुझसे डरता कौन है

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Thursday, 6 March 2014

अँधेरी रात में तारे اندھیری رات میں تارے







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अँधेरी रात में तारे चमक जायें तो अच्छा हो
बहारों में गुलाब अब के महक जायें तो अच्छा हो

बलंदी की हवस में आशियाँ जो भूल बैठे हैं
परिंदे अब वो उड़ते उड़ते थक जायें तो अच्छा हो

मेरी खुशियों से तेरी ज़िन्दगी गुलज़ार हो जाये
तेरे ग़म से मेरी आँखें छलक जायें तो अच्छा हो.

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ज़ेरे-पा इक जहान زیر پا اک جہان





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ज़ेरे-पा इक जहान रखते हैं
वो जो टूटे मकान रखते हैं

एक मुद्दत हुई मगर अब भी
हम हथेली पे जान रखते हैं

मंज़िलें भी उन्हीं को मिलती हैं
हौसले जो जवान रखते हैं

दोनों मिलते हैं टूट कर लेकिन
फासला दरमियान रखते हैं

आमने यूँ न जाओ बे पर्दा
आईने भी ज़बान रखते हैं

मर चुकीं साड़ी ख्वाहिशें अब हम
रास्तों कि तकान रखते हैं

उनसे मेहरो-करम खुलूसो-वफ़ा
हम भी क्या क्या गुमान रखते हैं

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