Sunday, 23 February 2014

गली गली था گلی گلی تھا



غزل



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गली गली था, नगर नगर था, डगर डगर था.
उदास लम्हों में बन के खुशबू वो हमसफ़र था.

मिली जो मुझसे कल इत्तिफ़ाक़न तो मैंने देखा,
न जाने क्यूँ ज़िन्दगी की आँखों में एक डर था.

बिखर गया हूँ मैं शहरों शहरों तो सोचता हूँ,
मेरा भी कोई वजूद था एक मेरा घर था.

ग़मों ने शायद मुझे भी पत्थर बना दिया क्या?
मैं टूट जाऊँगा हादसों से ये मुझको डर था.

वो मरता सूरज, लहू लहू सा उफक  का गोशा,
कि आसमाँ को भी दुःख बिछड़ने का किस क़दर था.

मैं चुप हुआ तो ये उसने समझा कि मिट गया मैं,
कि बाद-अजाँ मैं गली गली था, नगर नगर था.

वो एक पल जो मेरा कभी तेरे साथ गुज़रा,
वो एक पल सारी ज़िन्दगी से अज़ीम-तर था.
फ़रीद क़मर

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