Monday, 17 February 2014

हरा था ज़ख्म जो ہرا تھا زخم جو




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हरा था ज़ख्म जो बरसों से, भरने वाला है
तुम्हारी याद का मौसम गुजरने वाला है

मुझे पता है कि नफरत बुझा हरेक खंजर
मेरे ही सीने में इक दिन उतरने वाला है

तवील शब् है, मगर फिर भी हौसला रक्खो
यहीं से इक नया सूरज उभरने वाला है

तमाम शहर का फैला हुआ ये सन्नाटा
मेरे वजूद में जैसे उतरने वाला है

वो दूर उफ़क़ में थका सा लहू लहू सूरज
बड़े सुकून से कुछ पल में मरने वाला है

महक रही है गुलाबों से दिल कि ये वादी
इधर से हो के वो शायद गुजरने वाला है

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