Monday, 24 February 2014

जो तेरा मेरा रिश्ता था جو تیرا میرا رشتہ تھا



نظم



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जो तेरा मेरा रिश्ता था
वो रिश्ता कितना सच्चा था
मैं तेरी लगन में आवारा
जब सहरा सहरा फिरता था
तू जैसे कोई बादल था
जो घिर कर मुझ पर बरसा था
तू जैसे कोई आँचल था
जो सर पे मेरे लहराया था
उस यास के तपते सहरा में
उम्मीद का तू इक साया था

ये कल तक की सब बातें हैं
ये कल तक का सब क़िस्सा था
जब तेरी समंदर आँखों में
कल शाम का सूरज डूबा था
और साहिल की नम रेत पे तूने
नाम हमारा लिक्खा था
और फिर दरिया की लहरों ने
बस मेरा नाम मिटाया था
और तूने अपने हाथों को
मेरे हाथों से छुड़ाया था
उस वक़्त मेरी इन आँखों में
इक साया सा लहराया था

वो लम्हा कितना भारी था
जब तूने मुझको छोड़ा था
वो ख्वाब जो मैंने देखे थे
हर ख्वाब वो रेज़ा रेज़ा था
उस साहिल की नम रेत पे अब
मैं बिलकुल तन्हा तन्हा था
बस सूनी सूनी आँखें थीं
और ख़ाली ख़ाली रस्ता था
उस वक़्त ये मैंने जाना था
उस वक़्त ये मैंने समझा था
तू मेरे लिए इक दुनिया थी
मैं तेरे लिए इक लम्हा था

जो तेरा मेरा रिश्ता था
वो रिश्ता कितना कच्चा था
तू मेरे बिना भी खुश खुश थी
मैं तेरे बिना भी ज़िंदा था

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Sunday, 23 February 2014

धमकियों से डर न जाए دھمکیوں سے ڈر نہ جاۓ




غزل



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धमकियों से डर न जाए आइना.
सच से फिर मुकर न जाए आइना.

पत्थरों का इक हुजूम है उधर,
कह दो कि उधर न जाए आइना.

डर ये है कि झूट सच की जंग में,
टूट कर बिखर न जाए आइना.

सैकड़ों क़यामतें हैं राह में,
कह दो आज घर न जाए आइना.

पै बा पै हक़ीक़तों की ज़र्ब को,
सहते सहते मर न जाए आइना.

जब कहेगा सच कहेगा, इसलिए
नज़रों से उतर न जाए आइना.

चाँद शर्मसार होगा बे सबब,
आज बाम पर न जाए आइना.

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गली गली था گلی گلی تھا



غزل



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गली गली था, नगर नगर था, डगर डगर था.
उदास लम्हों में बन के खुशबू वो हमसफ़र था.

मिली जो मुझसे कल इत्तिफ़ाक़न तो मैंने देखा,
न जाने क्यूँ ज़िन्दगी की आँखों में एक डर था.

बिखर गया हूँ मैं शहरों शहरों तो सोचता हूँ,
मेरा भी कोई वजूद था एक मेरा घर था.

ग़मों ने शायद मुझे भी पत्थर बना दिया क्या?
मैं टूट जाऊँगा हादसों से ये मुझको डर था.

वो मरता सूरज, लहू लहू सा उफक  का गोशा,
कि आसमाँ को भी दुःख बिछड़ने का किस क़दर था.

मैं चुप हुआ तो ये उसने समझा कि मिट गया मैं,
कि बाद-अजाँ मैं गली गली था, नगर नगर था.

वो एक पल जो मेरा कभी तेरे साथ गुज़रा,
वो एक पल सारी ज़िन्दगी से अज़ीम-तर था.
फ़रीद क़मर

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Thursday, 20 February 2014

बहुत कठिन था بہت کٹھن تھا







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बहुत कठिन थामगर सर ये मरहला तो हुआ.

तेरे बग़ैर भी जीने का हौसला तो हुआ.

ये और बात कि नेज़ों पे सर हमारे थे,
थमा हुआ था जो कल तक वो कर्बला तो हुआ.

इक ऐसा दौरजहाँ प्यार है गुनाहे-अज़ीम,
ये इक गुनाह भी हमसे अगर हुआ तो हुआ.

 *

सरों कि फ़स्ल सभी मौसमों में काटी गई,
हमारे खूं से ही गुलशन हरा भरा तो हुआ.

*

सियाह रात किसी तरह से कटी तो सही

सहर का रंग ज़रा सा ही, रोनुमा तो हुआ


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फ़रीद क़मर
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Monday, 17 February 2014

याद आती रही یاد آتی رہی




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याद आती रही वो नज़र रात भर
एक खुश्बू रही हमसफ़र रात भर

रात भर शहर यादों का जलता रहा
दिल को डसता रहा कोई डर रात भर

एक सूरज अंधेरों कि ज़द पर रहा
शब् से लड़ती रही इक सहर रात भर

तेरी यादों से कमरा मुअत्तर रहा
जगमगाते रहे बामो-दर रात भर

ज़िन्दगी ज़ख्म देती रही सारे दिन
तेरी यादें रहीं चारागर रात भर

शहरे-आवारगी में भटकते हुए
याद आया बहुत मुझको घर रात भर

एक खुश्बू के जैसे ये पागल हवा
ले के फिरती रही दर-ब-दर रात भर

चाँद में तेरी तस्वीर बनती रही
कोई फिरता रहा बाम पर रात भर

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कुछ निशाने-ज़िन्दगी کچھ نشان زندگی






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कुछ निशाने-ज़िन्दगी, कुछ नक़्शे-पा ले जायेंगे
हादसे अब शहर के दामन से क्या ले जायेंगे


तूने सोचा है कभी तेरे तरीक़े-कार से

कितनों के लब से हँसी, मुँह से निवाले जायेंगे

फूल हैं हम, सूख के बन जायेंगे खाके-चमन
बू नहीं हैं हम कि ये झोंके उड़ा ले जायेंगे

ले रहा है करवटें रह रह के फिर इक कर्बला
फिर से नेज़ों पर हमारे सर उछाले जायेंगे

हैसियत क्या है दिलों की, क्या चराग़ों की बिसात
शाम के साये ये सूरज भी बुझा ले जायेंगे

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हरा था ज़ख्म जो ہرا تھا زخم جو




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हरा था ज़ख्म जो बरसों से, भरने वाला है
तुम्हारी याद का मौसम गुजरने वाला है

मुझे पता है कि नफरत बुझा हरेक खंजर
मेरे ही सीने में इक दिन उतरने वाला है

तवील शब् है, मगर फिर भी हौसला रक्खो
यहीं से इक नया सूरज उभरने वाला है

तमाम शहर का फैला हुआ ये सन्नाटा
मेरे वजूद में जैसे उतरने वाला है

वो दूर उफ़क़ में थका सा लहू लहू सूरज
बड़े सुकून से कुछ पल में मरने वाला है

महक रही है गुलाबों से दिल कि ये वादी
इधर से हो के वो शायद गुजरने वाला है

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मैं हँस पड़ा हूँ میں ہنس پڑا ہوں




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मैं हँस पड़ा हूँ बहुत ज़ोर से, मगर कैसे
ये दुःख छुपाने का आया मुझे हुनर कैसे

मैं टूट टूट के बिखरा पड़ा हूँ राहों में
न पूछ मुझसे कटा ज़ीस्त का सफ़र कैसे

ये मैकदा है, यहाँ ज़िन्दगी हराम नहीं
"जनाबे-शैख़ भला आ गए इधर कैसे"

तमाम शब् का जगा हूँ ये राज़ जानता हूँ
दिये की लौ से फ़रोज़ाँ हुई सहर कैसे

फलक को छूने की शायद किसी ने कोशिश की
ज़मीं पे बिखरे हैं टूटे हुए ये पर कैसे

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